रविवार, 2 अक्तूबर 2016

The wounds will heal,
the scars will vanish
and pain will subside,
yet an emptiness will prevail
n in this emptiness will come,
Your memories echoing back
And  I will be drenched
From head to toe
In your love... long lost love

कोकून में रहती हैं लड़कियां
एक खोल में ढक के खुद को
बिता देती हैं जिंदगी
बुनती- बीनती  हैं,
बनाती हैं उसे सुंदर
उस से बाहर जाने का सोचती भी नही
और एक दिन छिन जाता है वो खोल
छिनने से पहले काटी, उबाली जाती हैं वो
उसी खूबसरती के लिए
रह जाती खाली खोल लिए
पर मरती नही , न छोड़ती हैं
बुनना - बीनना , बनाना
फिर इक नए खोल को
सुन्दर बनाना

शहर में नई बनी थी
पचहत्तर माले की बिल्डिंग
और लगी शर्त, सीढ़ियों से
सबसे पहले ऊपर पहुँचने की
मत हंसो, लड़कपन था
वो लड़कपन ही क्या जिसमे
शर्तें न बदीं जाएँ, हौसले न नापे जाएँ ।

तो शुरू की चढ़ाई, हँसते, खिलखिलाते
एक दूसरे की नकलें बनाते
चिढ़ाते, खिजाते, साथ में चढ़ते जाते
बहुत जल्द आया समझ कि
जीतना हो गर तो ये सब व्यर्थ के
हंसी-मजाक होंगे छोड़ने,
तो मौन सब लगे चढ़ने ।

बस देखते एक दूसरे को
अपने बीच के अंतर को
कम करने की कोशिश करते
नजर मिलने पर मुस्काते
पर चढ़ना जारी रखते
हालांकि गति पड़ गयी थी धीमी
पर शर्त की याद आते ही जोर लगाते ।

थोड़ी देर में ही फासले बढ़ने लगे
यारों में, और बढ़ने लगी थकन
बहुत दूर धुंधलाते अक्स नजर आते
पैर खींचते, घसीटते बढ़ते जाते
पता नही पीछे कौन कहाँ बैठा, या नही
बस अपनी धुन में चलते जाते
सांस धौंकनी, कैसे मुस्काते ?
हर कदम जबरन उठाते
बस पहुँच ही गए कह खुद को मनाते ।

और, पहुँच के पस्त पड़ जाते
अद्भुत नजारा वहां से
धूप और बादल की अठखेली देखते
साँसें समेट के जोर से चिल्लाते 
पर पीछे मीलों तक तक कोई नही
किसे ये सुख बताते
नीचे झाँको तो कीड़े-मकोड़े से
पहचान में भी न आते ।

शर्त तो जीती पर
बोझल क़दमों से उतरते सोचते जाते
चढ़ने का मजा कहाँ छोड़ आये
कब संग तय किये सफ़र में
अकेले ही पड़ गए, भांप भी नही पाते ।

हाँ, जीती शर्त पर,
इस होड़ में क्या-क्या खोया
हिसाब लगाते, अकेले की जीत
न देती ख़ुशी उतनी ,
जितनी संगी के साथ हारने में पाते
ऐसी जीत में न बड़प्पन, न सम्मान, न ख़ुशी
बस अकेलापन, घनघोर अकेलापन ।

शनिवार, 1 अक्तूबर 2016

सच ही कहते हैं कि किसी से बात कर लो तो मन हल्का हो जाता है। फिर भले ही उस से कुछ भी न कहा हो, कोई परेशानी न बांटीं हो। बातें भी कहाँ, सिर्फ मेसेज ही किये हों, आम से। और वो भी कोई आम ही हो, कोई विशेष या ख़ास न हो। कैसे हैं, ठीक तो हैं, जैसे। हर जवाब झूठ हो। मन चीख-चीख कर कहना चाह रहा हो कि नहीं, नहीं हूँ ठीक लेकिन जवाब में एक स्माइली चिपका के भी बेहतर लगता है | आँखों भरी हों, पर उंगलियाँ हा हा हा टाइप कर रही हों। बस काम भर की बातें, औपचारिकता सी। पर पता नहीं कैसे वो स्माइली, वो हा हा हा अपना काम करतीं हैं। उँगलियों से मन तक। न, हँसी नहीं आती, न मुस्कान, पर फिर भी एक बोझ सा कम होता है। कोई इस ऊँगली और मस्तिष्क से होते हुए मन तक का सम्बन्ध विज्ञान में से ढूंढ कर ला भी दे सकता है। पर मुझे लगता है कि शब्द, बिना उच्चरित हुए सिर्फ लिखित शब्द भी बड़ी करामात दिखाते हैं। कभी गौर कीजिएगा। जादू होता है शब्दों में और मुझे प्यार है इस जादूगरी से।  

बोंसाई सी लड़की

कभी देखें हैं बोन्साई  खूबसूरत, बहुत ही खूबसूरत लड़कियों से नही लगते? छोटे गमलों में सजे  जहां जड़ें हाथ-पैर फैला भी न सकें पड़ी रहें कुंडलियों...