शनिवार, 1 अक्तूबर 2016

सच ही कहते हैं कि किसी से बात कर लो तो मन हल्का हो जाता है। फिर भले ही उस से कुछ भी न कहा हो, कोई परेशानी न बांटीं हो। बातें भी कहाँ, सिर्फ मेसेज ही किये हों, आम से। और वो भी कोई आम ही हो, कोई विशेष या ख़ास न हो। कैसे हैं, ठीक तो हैं, जैसे। हर जवाब झूठ हो। मन चीख-चीख कर कहना चाह रहा हो कि नहीं, नहीं हूँ ठीक लेकिन जवाब में एक स्माइली चिपका के भी बेहतर लगता है | आँखों भरी हों, पर उंगलियाँ हा हा हा टाइप कर रही हों। बस काम भर की बातें, औपचारिकता सी। पर पता नहीं कैसे वो स्माइली, वो हा हा हा अपना काम करतीं हैं। उँगलियों से मन तक। न, हँसी नहीं आती, न मुस्कान, पर फिर भी एक बोझ सा कम होता है। कोई इस ऊँगली और मस्तिष्क से होते हुए मन तक का सम्बन्ध विज्ञान में से ढूंढ कर ला भी दे सकता है। पर मुझे लगता है कि शब्द, बिना उच्चरित हुए सिर्फ लिखित शब्द भी बड़ी करामात दिखाते हैं। कभी गौर कीजिएगा। जादू होता है शब्दों में और मुझे प्यार है इस जादूगरी से।  

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