शहर में नई बनी थी
पचहत्तर माले की बिल्डिंग
और लगी शर्त, सीढ़ियों से
सबसे पहले ऊपर पहुँचने की
मत हंसो, लड़कपन था
वो लड़कपन ही क्या जिसमे
शर्तें न बदीं जाएँ, हौसले न नापे जाएँ ।
तो शुरू की चढ़ाई, हँसते, खिलखिलाते
एक दूसरे की नकलें बनाते
चिढ़ाते, खिजाते, साथ में चढ़ते जाते
बहुत जल्द आया समझ कि
जीतना हो गर तो ये सब व्यर्थ के
हंसी-मजाक होंगे छोड़ने,
तो मौन सब लगे चढ़ने ।
बस देखते एक दूसरे को
अपने बीच के अंतर को
कम करने की कोशिश करते
नजर मिलने पर मुस्काते
पर चढ़ना जारी रखते
हालांकि गति पड़ गयी थी धीमी
पर शर्त की याद आते ही जोर लगाते ।
थोड़ी देर में ही फासले बढ़ने लगे
यारों में, और बढ़ने लगी थकन
बहुत दूर धुंधलाते अक्स नजर आते
पैर खींचते, घसीटते बढ़ते जाते
पता नही पीछे कौन कहाँ बैठा, या नही
बस अपनी धुन में चलते जाते
सांस धौंकनी, कैसे मुस्काते ?
हर कदम जबरन उठाते
बस पहुँच ही गए कह खुद को मनाते ।
और, पहुँच के पस्त पड़ जाते
अद्भुत नजारा वहां से
धूप और बादल की अठखेली देखते
साँसें समेट के जोर से चिल्लाते
पर पीछे मीलों तक तक कोई नही
किसे ये सुख बताते
नीचे झाँको तो कीड़े-मकोड़े से
पहचान में भी न आते ।
शर्त तो जीती पर
बोझल क़दमों से उतरते सोचते जाते
चढ़ने का मजा कहाँ छोड़ आये
कब संग तय किये सफ़र में
अकेले ही पड़ गए, भांप भी नही पाते ।
हाँ, जीती शर्त पर,
इस होड़ में क्या-क्या खोया
हिसाब लगाते, अकेले की जीत
न देती ख़ुशी उतनी ,
जितनी संगी के साथ हारने में पाते
ऐसी जीत में न बड़प्पन, न सम्मान, न ख़ुशी
बस अकेलापन, घनघोर अकेलापन ।
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