सोमवार, 28 नवंबर 2016

मैंने प्रेम लिखा,
तुमने दर्द पढ़ा,
न जाने क्यूँ,
पर जब पढ़ा तो मुझे भी लगा
शायद दर्द ही था लिखा
अब जो मैं दर्द लिखूँ तो प्रेम पढोगे ?
शायद तब
तुम तक पहुँचने का ख्वाब पूरा हो सके ।

नए नोट, पुराने नोट
8 नवंबर की नोटबंदी के एलान से पहले किसी भी बटुए में बड़े और छोटे नोटों के बीच एक वर्ग संघर्ष सा चलता ही रहता था। 1000 और 500 के नोट की एक टोली थी जो 50, 20,10, 5और 1 के नोटों को मुंह नही लगाती थी। ये छोटे नोटों की टोली गरीब बच्चों की हुड़दंगी टोली सी थी जिसे कभी कभी कोई धनाढ्य कंजक जिमाने के लिए बुला लेता था। इनमें से 1 रूपये की कद्र जरूर थोड़ी अधिक थी क्योंकि शादी ब्याह के मौसम में लिफाफों में बड़े नोटों की संगत कुछ देर के लिए मिल जाती थी। उसके बाद उसका फिर वही हाल होता था जो उसके पुराने साथियों का हमेशा होता था। हाँ, 100 रु के नोट की स्थिति कुछ बेहतर थी। वो बड़े नोटों की टोली में बारहवे खिलाडी की तरह था जिसे सिर्फ पानी पिलाने के लिए टीम में रखा जाता है। हाँ, लेकिन छोटों नोटों की टोली में वो सरदार था। उसके आगे सब ऐसे चुप हो जाते थे जैसे शोर मचाते बच्चों की कक्षा में अचानक से मरखोर मास्साब आ जाएं।
     तो जैसे सत्यनारायण की कथा के अंत में कहते हैं न, कि जैसे इसके दिन बदले वैसे सबके बदलें, तो कुछ वैसे ही देवी सरस्वती ने मोदीजी की मति फेर दी,और उन्होंने तत्काल प्रभाव से नोटबंदी का फरमान सुना डाला और छोटे नोटों के दिन बदल गए। देश में जो प्रभाव हुआ सो हुआ, बटुए पे इसका कैसा असर हुआ,वो सोचिये। रातोंरात हर शख्स के बटुए से बड़े नोट निकल गए। उनकी जगह छोटे नोटों ने ले ली। 100 रु का नोट नया सरताज था इस सल्तनत का। उसका हाल तो बिल्ली के भाग से छींका टूटने सा हो गया। लेकिन उसकी ये ख़ुशी ज्यादा दिन की नहीं थी। जल्द ही 2000 के तथा 500 के नए नोट आने का एलान हुआ । फिर से वही वर्ग संघर्ष की लड़ाई की आहट हुई।
        नए नोटों की कमी के कारण सत्ता के उलटफेर का सा मामला बन नही पाया । 2000 का एक नोट 100, 50, 20,10 की टोली में ऐसे अजूबे सा देखा जाता जैसे कोई अप टू डेट विदेशी झोपड़पट्टी पे डाक्यूमेंट्री बनाने आया हो। जैसे गली के बच्चे नयी कार आने पे उसके पीछे भागते और उसका मालिक बच्चों को खदेड़ता रहे ठीक वैसे ही सारे नोट मिल कर बड़े नोट को छेड़ने में लगे और वो अपनी हैरानी परेशानी पे एलीट होने का चश्मा चढ़ाये कोने में अकेला बैठा रहे। सही भी है जब तक अपनी मेजोरिटी न हो बन्दे को चुप रहना चाहिए। ऊपर से अभी 500 के नए नोटों के हमशक्ल का लफड़ा और हो गया। 2000 के नोट को एक साथी की उम्मीद थी जो इन छिछोरे नोटों के विरुद्ध उसका साथ दे, लेकिन हाय री किस्मत।  जिसके बूते पे वो भविष्य की बादशाहत के सपने देख रहा उसकी हालत तो पिटे प्यादे से भी गयी गुजरी निकली। बेचारे 500 के नोट को अपनी हीरो जैसी एंट्री की उम्मीद थी लेकिन कॉमेडियन से भी गयी बीती हालत हो गयी। अब वो कोई उदय चोपड़ा तो है नही जो बार बार लांच हो।
  तो भई फिलहाल 1000 के नोट की हालत टीबी के मरीज जैसी हो गयी है, कोई जिसके पास बैठना भी पसंद नही करता। भले ही सरकार कितने ही विज्ञापन दे ले कि टीबी संक्रामक नही । वैसे ही 1000 का नोट भ्रष्टाचार के आरोप में  पदच्युत नेता सा कालकोठरी में बैठा है।  2000 और 500 के नोट अपनी जमीन तलाश रहे हैं और छुटभैयों की सरकार है ।
बाकी सब मजे में है ।

शनिवार, 26 नवंबर 2016

हम यूँ ही पैदा होते हैं, अचानक
और यूँ ही मर भी जाते हैं,
इस जीने और मरने के बीच का सफर भी होता
यूँ ही, बेवजह सा
बेवजह हँसते, बेवजह खिलखिलाते
बेवजह रोते, बेवजह गुनगुनाते
बेवजह लड़ते, बेवजह मनाते
काश... जी पाते बेवजह

बिना वजह की तलाश किए, 

और यूँ ही गुजर जाती जिंदगी
काश ऐसा हो कभी, यूँ ही

शुक्रवार, 25 नवंबर 2016

पूरे न हो सकने वाले ख्वाब
जब कसकते हैं रातों को,
तो करवटों में थपकियाँ दे
सुलाती हूँ उन्हें
और वो , नींद के आगोश में सिमटे जाते
किसी जिद्दी बच्चे से जाग उठते हैं फिर-फिर
मनाती, पुचकारती, फटकारती हूँ उन्हें
कभी थके तन से शिथिल हो सो भी जाते हैं
कभी अपने साथ अनगिन विषधरों को लिए
डंसते हैं सुबह तलक,
और मैं ख़्वाबों से डरी जागती हूँ रात भर

गुरुवार, 24 नवंबर 2016

तुमने कहा था,
प्रेम और पागलपन पर्याय ही हैं, लगभग ,
और मैं अटक गयी लगभग पर
ये लगभग की सीमारेखा कितनी
विचित्र रहती होगी न
जहाँ प्रेम में पागलपन और
पागलपन में प्रेम का समावेश हो
जैसे चौखट हो कोई, न अंदर न बाहर
बस चौखट हो, किंतु
चौखट घर नही होती,
न घर से बाहर कोई जगह
जहाँ रहा जा सके, हाँ
टिक जरूर सकते दो पल को
इसलिए आप प्रेमी होते हैं
या पागल , बस और कुछ नहीं ।

सुबह का सूरज,
रात के अधूरे, अधभूले से ख़्वाबों पर
कोमलता से अपना हाथ फेरता है
गुनगुनी धूप में सिंके, ताजा बुने ख्वाब
फिर से पलकों में गुंथ जाते हैं
दिन भर वहीँ छिपे और महकते जाते हैं
रात के इन्तजार में
और चाँद,
चाँद अपनी घटबढ़ में ख़्वाबों को तराशता सा जाता है
ऐसे ही तराशे, अधबुने सपने ले सोती हूँ
पिछली रात से सिरा पकड़ने की कोशिश में
नींद ही गुम जाती है
अधूरा ख्वाब अधूरा ही रह जाता है
एक और अधूरा पन्ना उनमे जुड़ जाता है
रात दर रात ख्वाब की किताब
मोटी होती जाती है
तब किसी दिन अचानक से यूँ ही बीच में से
कहीं से भी खोल लेती हूँ एक सफा
उस दिन उसी ख्वाब को जीती हूँ
आधा-अधूरा ही सही, सपना पूरा कर लेती हूँ।

रविवार, 20 नवंबर 2016

कैसा लगता है
जब थक के चूर हो,
बदन टूट रहा हो,
और काम न लिए जाने की,
रहम की भीख मांग रहा हो,
और जिम्मेदारियां,
रिंग-मास्टर सी चाबुक फटकारें
और बदन, किसी मदारी के बन्दर की तरह
हर चाबुक पर कलाबाजी दिखाते
काम पर लग जाता है तब, हाँ तब
सोचती हूँ कि थका क्या था ?
शरीर या मन ?
ये मन ही है जो इस टूटे शरीर को भी समेट कर
दौड़ के लिए तैयार कर देता है,
हर पल एक नए मुकाबले के लिए , और
मैं वारी जाती हूँ मन की इस ताकत पर,
तभी अनायास एक सवाल कचोटता है,
क्या हो गर मन ही थक जाए ?
शरीर उसे वापस बहला फुसला कर,
पुचकार कर ला पायेगा ? नहीं,
थका मन मुकाबले से पहले ही
तन को मुकाबले से बाहर करवा देगा,
और मैं डर से काँप उठती हूँ ,
इस मन के मरने या मारने के ख्याल भर से ही,
और थकन के चुनाव में शरीर को ही चुनती हूँ ।

गुरुवार, 17 नवंबर 2016

फेसबुक की पोस्ट पर बढ़ती लाइक और कमेंट की संख्याओं  में वो सिर्फ एक नाम तलाशती थी, क्योंकि उसे पता था कि उसकी हर पोस्ट वो जरूर पढता है, शायद "सी फर्स्ट" कर रखा हो, पर जताता नही कभी। कोई अच्छी या बुरी प्रतिक्रिया नही, न कोई कमेंट, लेकिन पता होता हमेशा कि हर कमेंट और उसके उत्तर पर उसकी नजर रहती है। अपनी लाइक भी आम लाइक में छुपा कर देता वो, कभी कोई और रिएक्शन दिया ही नही, जैसे वे सब उसके लिए बने ही नही । न, हर पोस्ट पर लाइक नही आता था उसका, बस चुनिंदा पोस्ट्स पर ही आता था। पता नही खुद को आम लोगों  के साथ नही मिलाना चाहता था या सचमुच उसकी कुछ ही पोस्ट पसंद आतीं थी । खैर, जो भी हो, वो इन्तजार करती थी उसकी लाइक का । सैकड़ों लाइक की लिस्ट में उस एक नाम को ढूंढना उसका शगल हो गया था।  उसे अपनी हर वो पोस्ट पसंद आती थी, जिस पर उसकी लाइक हो, जैसे उसकी लाइक सबूत है कि उसने कुछ अच्छा लिखा है। इधरे उसने उसे "सी फर्स्ट " कर रखा, उसकी हर पोस्ट पर सबसे पहले आने वालों में उसका नाम होता ही था । कमेंट भी होते यदा-कदा, और उत्तर भी मिलते नपे-तुले से, और ये उत्तर उसे ख़ुशी से भर देते थे। कभी-कभी वो सोचती भी कि क्या उसे ये समझ में आता है कि उसे उस एक नाम को देखने का कितना इन्तजार रहता है। नहीं, नहीं ही जानता होगा । और वो कभी बताएगी भी नहीं ।

बुधवार, 16 नवंबर 2016

तुम लिख रहीं थीं,
मेरा नाम, रेत पर,
सागर किनारे
और मैं महसूस कर रहा था,
गीली रेत में तुम्हारी उँगली की छुअन
तुम्हारी पोरों की गर्मी से दहक रहा था,
मेरा नाम,
तुम्हारे स्पर्श सेऔर मैं,
मैं उस गर्मी को निगाहों में समेट
तुम्हारे गालों पर उड़ेल रहा था
तभी, एक लहर ने धो दी वो लिखाई,
गुम हो गया वो नाम जो था
अभी कुछ ही देर पहले तक
प्यार के प्रतीक सा,
जैसे कभी कहीं कुछ था ही नही
मैंने अपनी नजरें रेत से उठा
झांका तुम्हारी आँखों में
वहां कहीं भी नही थी मायूसी
लिखे के अनलिखे हो जाने की,
मेरी सवालिया नजरों को पढ़ लिया तुमने
और कहा, मिट जाने दो , मैं फिर लिखूंगी
कि मुझे प्यार है इस से, इस नाम से
और एक बार फिर वो हरारत महसूस हुई मुझे
फिर वही गीली रेत में तुम्हारी ऊँगली की छुअन
और मुझे प्यार हो गया
फिर से, तुमसे । <3

बोंसाई सी लड़की

कभी देखें हैं बोन्साई  खूबसूरत, बहुत ही खूबसूरत लड़कियों से नही लगते? छोटे गमलों में सजे  जहां जड़ें हाथ-पैर फैला भी न सकें पड़ी रहें कुंडलियों...