जाने कैसे लोग होते हैं जिन्हें कोई regret कोई पछतावा नहीं होता। इतना सही कोई कैसे हो सकता है कि कुछ गलत न हुआ हो कभी भी उसकी जिंदगी में। अब इस पर ये कहा जा सकता है कि उसने गलत हुई चीजों को भी स्वीकार के दुरुस्त कर ली जिंदगी। पर ये तो adjustment हुआ न।
यहां हजारों regrets हजारों पछतावे हैं। काश ये न हुआ होता, काश ये न किया होता। ये न कहा होता या फिर कह ही दिया होता। काश ये जिंदगी ही न होती । काश ये जद्दोजहद न होती कि कहा होता तो ये हो जाता। या फिर वो हो जाता या शायद कुछ भी न होता। क्या पता। जिंदगी का निचोड़ इस एक काश में है। काश इसका भी कोई दूसरा पहलू होता। पहलू तो है जो मौजूदा है, जो सामने है। जिसके मुखौटे के पीछे काश छिपा होता है। वो छिप के झांकता है, उसकी झलक रह रह के सामने आती रहती है। वही झलक regret बन जाती है। सारा सार बस यही है कि जिंदगी एक "काश" बन चुकी है और ये काश की कश्मकश कलेजा मथती जाती है।