सरकारें सता में आतीं है |
सरकारें नई योजनायें बनातीं हैं | फिर सरकारें उन योजनाओं को लागू करवाती हैं |
इसमें कुछ योजनायें लागू होतीं हैं कुछ नहीं | योजनायें दरअसल सरकारों के बच्चे
होते हैं | इसीलिए वो उन्हें बहुत प्रिय भी होतीं हैं | अब जैसे बहुत से बच्चों
में से कोई बच्चा ज्यादा तेज होता है कोई जरा कम और कोई तो बिलकुल नाकारा | उसी
तरह योजनाओं में से कोई टिंच होती है कोई फुस्स | जिसमें खाने-कमाने के अवसर
ज्यादा हों वो टिंच और जिसमे कम हों वो फुस्स | लेकिन ऐसी कोई योजना आज तक नहीं
बनी जिसमे कोई अवसर हो ही नहीं | सरकारें घाटे का कोई काम नहीं करतीं | जिस प्रकार
नालायक बच्चा भी जूते गाँठ के घर में चवन्नी ले ही आता है, वैसे ही हर एक योजना
किसी न किसी का भला तो करती ही है | अब ये और बात है कि जिसका भला करने की कोशिश
की गयी हो उसके बजाय किसी और का भला हो गया हो | और सरकार का भला तो सबसे होता ही
है |
कई बार ऐसा भी होता है कि कोई
योजना किसी और सरकार ने शुरू की लेकिन वो पूरी होते-होते सरकार बदल जाती है | फिर
बदली हुई सरकार उस योजना का नाम बदला कर उसे अपने नाम कर श्रेय ले लेती है | यह
कुछ ऐसा ही है जैसे राह चलते किसी बच्चे को गोद लिया जाए और उसे अपना नाम दे कर
पुण्य कमाया जाए | हालांकि आजकल इस पर बहुत तकरार होने लगी है कि फलां योजना अमुक
नेता ने शुरू की थी इसलिए वो अमुक नेता की हुई | लेकिन खुद ही बताइए जो नेता वापस
सत्ता में न आ सके उस नेता के नाम योजना कर उसका भाव क्यों गिराना | वैसे भी इतिहास
गवाह है कि नाम तो जीतने वाले का ही होता है | शिलालेख तो उसी का लगता है | अभी तक
ऐसा सड़क, पुल वगैरह में हुआ करता था, फिलहाल अब ऐसा जी.एस.टी. में भी हुआ है |
विपक्ष कह रहा है कि ये
जी.एस.टी की स्कीम वे लाये थे और तब के विपक्ष जो अब सत्ता में हैं, ने इसका
पुरजोर विरोध किया था | उनके इसी विरोध के कारण हम ये नहीं ला पाए थे | अब आज के
सत्ता पक्ष उन्हें अंगूठा दिखाते हुए कह
रहे हैं कि हमारी जी.एस.टी. नई-नवेली है | आपके जी. एस.टी. में वो फीचर नहीं हैं
जो हम ले के आये हैं | हमने इसमें “बाय वन, गेट थ्री” की तर्ज पर चार स्लैब बनाये हैं | अब जब आप कुछ भी खरीदने
जायेंगे, आप यह तो पता कर ही लेंगे कि उस वस्तु पर कितने प्रतिशत टैक्स है | साथ
ही आपका अच्छा ख़ासा रिवीजन भी हो जाएगा कि कौन सी वस्तु कितने प्रतिशत टैक्स के
दायरे में है | इस तरह पूरी जनता की याददाश्त दुरुस्त रहेगी | इसके साथ ही जी.एस.टी.
से सरकार पर पैसों की भरमार हो जायेगी जो आप ही का भला करने के लिए नई योजनाओं को
बनाने में खर्च की जायेगी |
योजनाओं को चलाने के लिए
पैसों की जरुरत पड़ती है | योजनायें सिर्फ जबानी जमाखर्च से नहीं चलतीं | सरकार के
नुमाइंदे भले ही योजनाओं में से करोड़ों रूपये कमा लें लेकिन योजनाओं में लगाने के
लिए धन हमेशा कम ही रहता है | इस कमी को पूरी करने के लिए सरकार टैक्स लगाती है |
टैक्स वो रकम है जो सरकार जनता से उसकी भलाई के कामों में लगाने के लिए जबरिया लेती
है | मतलब कुछ यूँ कि अपना बायाँ कान अपने बायें हाथ से न पकड़ कर दाहिने हाथ से
पकड़ना | सरकार इस प्रकार जनता के कान पकड़ती है कि उसे पता ही नहीं चलता कि कान
पकडे भी गए हैं | उसे पता तब चलता है जब कान खिंचने शुरू होते हैं | अब जनता तो
जनता ही है उसकी क्या मजाल जो अपने कान छुड़ा ले | कान तो खिंचने ही हैं | जनता के हाथ में सिर्फ यही प्रार्थना
करना है कि कान जरा कम जोर से खिंचें |
ये कुछ ऐसे ही है जैसे अब
नए लागू हुए जी एस टी में टैक्स की अलग-अलग दरों से पता चल रहा है कि अब तक उसके
कान कहाँ-कहाँ और कैसे-कैसे खींचे जा रहे थे | अब वो बेचारी सकपकाई सी खड़ी है |
उसे समझ में नहीं आ रहा है कि वो रोये कि अब तक वो कितनी तरह के कितने ज्यादा टैक्स
दे रही थी या खुश हो अब उसे कम टैक्स देना पडेगा | उस समझ में आये भी तो कैसे भला,
जब उसे समझाने को उतारू बैठे एक से एक विशेषज्ञों की समझ में कुछ नहीं आ रहा | सभी
खुद को सही मान रहे | सभी विशेषज्ञ अपने तर्कों से एक दूसरे की बोलती बंद कर रहे
हैं और आपस में इस तरह लड़े जा रहे हैं कि लगता है विश्व युद्ध इसी मुद्दे पर होगा
कि जी.एस.टी. देश के लिए अच्छी साबित होगी या बुरी |
अब जो हमने जी.एस.टी. पर
इतना लिख मारा है तो एक शंका सर उठा रही है कि कहीं लिखना भी टैक्स के दायरे में न
आ चुका हो | और जो सच्ची आ ही गया हो तो वो कौन सी स्लैब में रखा गया है ? हम इतना टैक्स देंगे
कहाँ से ? इन सब सवालों के जवाबों के लिए हमें किसी सस्ते से सी.ए. को खोजना पडेगा
| आप लोग अपनी देखिये | जय राम जी की |
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