शुक्रवार, 25 नवंबर 2016

पूरे न हो सकने वाले ख्वाब
जब कसकते हैं रातों को,
तो करवटों में थपकियाँ दे
सुलाती हूँ उन्हें
और वो , नींद के आगोश में सिमटे जाते
किसी जिद्दी बच्चे से जाग उठते हैं फिर-फिर
मनाती, पुचकारती, फटकारती हूँ उन्हें
कभी थके तन से शिथिल हो सो भी जाते हैं
कभी अपने साथ अनगिन विषधरों को लिए
डंसते हैं सुबह तलक,
और मैं ख़्वाबों से डरी जागती हूँ रात भर

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